शुक्रवार, 3 मई 2013

दुर्गा सप्तशती : पहला अध्याय

वन्दे गौरी गणपति शंकर और हनुमान,
राम नाम प्रभाव से है सब का कल्याण

गुरुदेव के चरणों की रज मस्तक पे लगाऊँ,
शारदा माता की कृपा लेखनी का वर पाऊँ

नमो नारायण दास जी विप्रन कुल श्रृंगार,
पूज्य पिता की कृपा से उपजे शुद्ध विचार

वन्दु संत समाज को वंदु भगतन भेख,
जिनकी संगत से हुए उलटे सीधे लेख

आदि शक्ति की वंदना करके शीश नवाऊँ,
सप्तशती के पाठ की भाषा सरल बनाऊँ

क्षमा करे विद्वान सब जान मुझे अनजान,
चरणों की रज चाहता बालक 'भक्त' नादान

घर घर दुर्गा पाठ का हो जाए प्रचार,
आदि शक्ति की भक्ति से होगा बेड़ा पार

कलयुग कपट कियो निज डेरा,
कर्मों के वश कष्ट घनेरा

चिंता अग्न में निस दिन जरहि,
प्रभु का सिमरन कबहू ना करही

यह स्तुति लिखी तिनके कारण,
दुःख नाशक और कष्ट निवारण

मारकंडे ऋषि करे बखाना,
संत सुनाई लावे निज ध्याना

स्वोर्चित नामक मन्वन्तर में,
सुरथ नामी राजा जग भर में

राज करत जब पड़ी लड़ाई,
युद्ध में मरी सभी कटकाई

राजा प्राण लिए तब भागा,
राज कोष परिवार त्यागा

सचिवन बांटेयो सभी खजाना,
राजन यह मर्म यह बन मे जाना

सुनी खबर अति भयो उदासा,
राजपाट से हुआ निराशा

भटकत आयो इकबन माहीं,
मेधा मुनि के आश्रम जाहीं

मेधा मुनि का आश्रम था कल्याण निवास,
रहने लगा सुरथ वह बन संतन का दास ॥

इक दिन आया राजा को अपने राज्य का ध्यान,
चुपके आश्रम से निकला पहुंचा बन में आन

मन में शोक अति पूजाए,
निज नैन से नीर बहाए

पुर ममता अति ही दुःख लागा,
अपने आपको जान अभागा

मन में राजन करे विचारा,
कर्मन वश पायो दुःख भारा

रहे न नौकर आज्ञाकारी,
गई राजधानी भी सारी
  
विधान्मोहे भयो विपरीता,
निशदिन रहूं विपन भयभीता

सोचत सोच रह्यो भुआला,
आयो वैश्य एक्तेही काला

तिन राजा को कीन्ही प्रणाम,
वैश्य समाधि कह्यो निज नाम

राजा कहे समाधि से कारन दो बतलाये,
दुखी हुए मन मलीन से क्यों इस वन में आये

आह भरी उस वैश्य ने बोला हो बेचैन,
सुमरिन कर निज दुःख का भर आये जल नैन

वैश्य कष्ट मन का कह डाला,
पुत्रों ने है घर से निकला

छीन लियो धन सम्पति मेरी,
मेरी जान विपद ने घेरी

घर से धक्के खा वन आया,
नारी ने भी दगा कमाया

सम्बन्धी स्वजन सब त्यागे,
दुःख पावेंगे जीव अभागे

फिर भी मन मे धीर ना आवे,
ममतावश हर दम कल्पावे

मेरे रिश्तेदारों ने किया नीचो का काम,
फिर भी उनके बिना ना आये मुझे आराम

सुरथ ने कहा मेरा भी ख्याल ऐसा,
तुम्हारा हुआ ममतावश हाल जैसा

चले दोनों दुखिया मुनि आश्रम,
आये चरण सर नव कर वचन
ये सुनाये ऋषिराज कर कृपा बतलाइयेगा,
हमे भेद जीवन का समझाइएगा

जिन्होंने हमारा निरादर किया है,
हमे हर जगह ही बेआदर किया है

लिया छीन धन और सर्वस है,
जो किया खाने तक से भी बेबस है

जो ये मन फिर भी क्यों उनको अपनाता है,
उन्हीं के लिए क्यों यह घबराता है

हमारा यह मोह तो छुड़ा दीजियेगा,
हमे अपने चरणों में लगा लीजियेगा

बिनती उनकी मान कर,  मेधा ऋषि सुजान,
उनके धीरज के लिए कहे यह आत्म ज्ञान

यह मोह ममता अति दुखदाई,
सदा रहे जीवो में समाई

पशु पक्षी नर देव गंधर्व,
ममतावश पावें दुःख सर्व

गृह सम्बन्धी पुत्र और नारी,
सब ने ममता झूठी डारी

यद्यपि झूठ मगर ना छूटे,
इसी के कारन कर्म हैं फूटे

ममता वश चिड़ी चोगा चुगावे,
भूखी रहे बच्चों को खिलावे

ममता ने बांधे सब प्राणी,
ब्राह्मण डोम ये राजा रानी

ममता ने जग को बौराया,
हर प्राणी का ज्ञान भुलाया

ज्ञान बिना हर जीव दुखारी,
आये सर पर विपदा भारी

तुमको ज्ञान यथार्थ नाही,
तभी तो दुःख मानो मन माही

पुत्र करे माँ बाप को लाख बार धिक्कार,
मात पिता छोड़े नहीं फिर झूठा प्यार

योगनिद्रा इसी को ममता का है नाम,
जीवों को कर रखा है इसी ने बे-आराम

भगवान् विष्णु की शक्ति यह,
भक्तों की खातिर भक्ति यह

महामाया नाम धराया है,
भगवती का रूप बनाया है

ज्ञानियों के मन को हरती है,
प्राणियों को बेबस करती है

यह शक्ति मन भरमाती है,
यह ममता मे फंसाती है

यह जिस पर कृपा करती है,
उसके दुखों को हरती है

जिसको देती वरदान है यह,
उसका करती कल्याण है यह

यही ही विद्या कहलाती है,
अविद्या भी बन जाती है

संसार को तारने वाली है,
यह ही दुर्गा महाकाली है

सम्पूर्ण जग की मालिक है,
यह कुल सृष्टि की पालक है

ऋषि से पूछा राजा ने कारन  तो बतलाओ,
भगवती की उत्पति का भेद हमें समझाओ

मुनि मेधा बोले सुनो ध्यान से,
मग्न निद्रा में विष्णु भगवान थे

थे आराम से शेष शैया पे  वो,
असुर मधु-कैटभ वह प्रगटे दो

श्रवण मैल से प्रभु की लेकर जन्म,
लगे ब्रह्मा जी को वो करने खत्म

उन्हें देख ब्रह्मा जी घबरा गए,
लखी निद्रा प्रभु की तो चकरा गए

तभी मग्न मन ब्रह्मा स्तुति करी,
की इस योग निद्रा को त्यागो हरी

कहा शक्ति निद्रा तू बन भगवती,
तू स्वाहा तू अम्बे तू सुख सम्पति

तू सावित्री संध्या विश्व आधार तू है,
उत्पति पालन व संघार तू है

तेरी रचना से ही यह संसार है,
किसी ने ना पाया तेरा पार है

गदा शंख चक्र पद्म हाथ ले,
तू भक्तों  का अपने सदा साथ दे

महामाया तब चरण ध्याऊँ,
तुम्हरी कृपा अभय पद पाऊँ

ब्रह्मा विष्णु शिव उपजाए,
धारण विविध शरीर कर आये

तुम्हरी स्तुति की ना जाए,
कोई ना पार तुम्हारा पाए

मधु कैटभ मोहे मारन आये,
तुम बिन शक्ति कौन बचाए

प्रभु के नेत्र से हट जाओ,
शेष शैया से इन्हें जगाओ

असुरों पर मोह ममता डालो,
शरणागत को देवी बचा लो

सुन स्तुति प्रगटी महामाया,
प्रभु आँखों से निकली छाया

तामसी देवी तब नाम धराया ,
ब्रह्मा खातिर प्रभु जगाया

योग निंद्रा के हटते ही प्रभु उघाड़े नैन,
मधु कैटभ को देखकर बोले क्रोधित बैन

ब्रह्मा मेरा अंश है मार सके ना कोय,
मुझ से बल आजमाने को लड़ देखो तुम दोए

प्रभु गदा लेकर उठे करने दैत्य संघार,
पराक्रमी योद्धा लड़े वर्ष वो पांच हजार

तभी देवी महामाया ने दैत्यों के मन भरमाये,
बलवानों के ह्रदय में दिया अभिमान जगाये

अभिमानी कहने लगे सुन विष्णु धर ध्यान,
युद्ध से हम प्रसन्न है मांगो कुछ वरदान

प्रभु थे कौतुक कर रहे बोले इतना हो,
मेरे हाथों से मरो वचन मुझे यह दो

वचन बध्य वह राक्षस जल को देख अपार,
काल से बचने के लिए कहते शब्द उच्चार

जल ही जल चहुँ ओर है ब्रह्मा कमल बिराज,
मारना चाहते हो हमें सो सुनिए महाराज

वध कीजिए उस जगह पे जल न जहाँ दे दिखाये,
प्रभु ने इतना सुनते ही जांघ पे लिया लिटाये

चक्र सुदर्शन से दिए दोनों के सर काट
खुले नैन रहे दोनों के देखत प्रभु की बाट

ब्रह्मा जी की स्तुति सुन प्रगटी महामाया,
पाठ पढ़े जो प्रेम से उसकी करे सहाया

शक्ति के प्रभाव का पहला यह अध्याय,
'भक्त' ' पाठ कारण लिखा सहजे शब्द बनाय

श्रद्धा भक्ति से करो शक्ति का गुणगान,
रिद्धि सिद्धि नव निधि दे करे दाती कल्याण

मुझे तेरा ही सहारा माँ.. मुझे तेरा ही सहारा

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