शुक्रवार, 10 मई 2013

दुर्गा सप्तशती : तेरहवां अध्याय

ऋषिराज कहने लगे मन में अति हर्षाए
तुम्हे महातम देवी का मैंने दिया सुनाए

आदि भवानी का बड़ा है जग में प्रभाओ
तुम भी मिल कर वैश्य से देवी के गुण गाओ

शरण में पड़ो तुम भी जगदम्बे की
करो श्रद्धा से भक्ति माँ अम्बे की

यह मोह ममता सारी मिटा देवेगी
सभी आस तुम्हारी पूजा देवेगी

तुझे ज्ञान भक्ति से भर देवेगी
तेरे काम पुरे यह कर देवेगी

सभी आसरे छोड़ गुण गाइयो
भवानी की ही शरण में आइओ

स्वर्ग मुक्ति भक्ति को पाओगे तुम
जो जगदम्बे को ही ध्याओगे तुम

दोहा:-
चले राजा और वैश्य यह सुनकर सब उपदेश
आराधना करने लगे बन में सहे क्लेश

मारकंडे बोले तभी सुरथ कियो तप घोर
राज तपस्या का मचा चहुं ओर से शोर

नदी किनारे वैश्य ने डेरा लिया लगा
पूजने लगे वह मिटटी की प्रीतिमा शक्ति बना

कुछ दिन खा फल को किया तभी निराहार
पूजा करते ही दिए तीन वर्ष गुजार

हवन कुंड में लहू को डाला काट शरीर
रहे शक्ति के ध्यान में हो आर अति गंभीर

हुई चंडी प्रसन्न दर्शन दिखाया
महा दुर्गा ने वचन मुहं से सुनाया

मै प्रसन्न हूं मांगो वरदान कोई
जो मांगोगे पाओगे तुम मुझ से सोई

कहा राजा ने मुझ को तो राज चाहिए
मुझे अपना वही तख़्त ताज चाहिए

मुझे जीतने कोई शत्रु ना पाए
कोई वैरी माँ मेरे सन्मुख ना आये

कहा वैश्य ने मुझ को तो ज्ञान चाहिए
मुझे इस जन्म में ही कल्याण चाहिए

दोहा:-
जगदम्बे बोली तभी राजन भोगो राज
कुछ दिन ठहर के पहनोगे अपना ही तुम ताज

सूर्य से लेकर जन्म स्वर्ण होगा तव नाम
राज करोगे कल्प भर, ऐ राजन सुखधाम

वैश्य तुम्हे मै देती हूं, ज्ञान का वह भंडार
जिसके पाने से ही तुम होगे भव से पार


इतना कहकर भगवती हो गई अंतरध्यान
दोनों भक्तों का किया दाती ने कल्याण

नव दुर्गा के पाठ का तेरहवां यह अध्याय
जगदम्बे की कृपा से भाषा लिखा बनाये

माता की अदभुत कथा 'भक्त' जो पढ़े पढ़ाये
सिंह वाहिनी दुर्गा से मन वांछित फल पाए


ब्रह्मा विष्णु शिव सभी धरे दाती का ध्यान
शक्ति से शक्ति का ये मांगे सब वरदान

अम्बे आध भवानी का यश गावे संसार
अष्टभुजी माँ अम्बिके भरती सदा भंडार

दुर्गा स्तुति पाठ से पूजे सब की आस
सप्तशती का टीका जो पढ़े मान विश्वास

अंग संग दाती फिरे रक्षा करे हमेश
दुर्गा स्तुति पढ़ने से मिटते 'भक्त' क्लेश

दुर्गा सप्तशती : बारहवां अध्याय


द्वादश अध्याय में है माँ का आशीर्वाद
सुनो राजा तुम मन लगा देवी देव संवाद ॥

महालक्ष्मी बोली तभी करे जो मेरा ध्यान
निशदिन मेरे नामों का जो करता है गान ॥

बाधायें उसकी सभी करती हूं मैं दूर
उसके ग्रह सुख सम्पति भरती हूं भरपूर ॥

अष्टमी नवमी चतुर्दर्शी करके एकाग्रचित
मन कर्म वाणी से करे पाठ जो मेरा नित ॥

उसके पाप व् पापों से उत्पन्न हुए क्लेश
दुःख दरिद्रता सभी मैं करती दूर हमेश ॥

प्रियजनों से होगा ना उसका कभी वियोग
उसके हर एक काम में दूँगी मैं सहयोग ॥

शत्रु, डाकू, राजा और शस्त्र से बच जाये
जल में वह डूबे नहीं न ही अग्नि जलाए ॥

भक्ति पूर्वक पाठ जो पढ़े या सुने सुनाये
महामारी बीमारी का कष्ट ना कोई आये ॥

जिस घर में होता रहे मेरे पाठ का जाप
उस घर की रक्षा करूं मिटे सभी संताप ॥

ज्ञान चाहे अज्ञान से जपे जो मेरा नाम
हो प्रसन्न उस जीव के करूं मैं पूरे काम ॥

नवरात्रों में जो पढ़े पाठ मेरा मन लाये
बिना यत्न किये सभी मनवांछित फल पाए ॥

पुत्र पौत्र धन धाम से करूं उसे सम्पन्न
सरल भाषा का पाठ जो पढ़े लगा कर मन ॥

बुरे स्वप्न ग्रह दशा से दूँगी उसे बचा
पढ़ेगा दुर्गा पाठ जो श्रद्धा प्रेम बढ़ा ॥

भूत प्रेत पिशाचिनी उसके निकट ना आये
अपने दृढ़ विश्वास से पाठ जो मेरा गाए ॥

निर्जन वन सिंह व्याघ से जान बचाऊं आन
राज्य आज्ञा से भी ना होने दूं नुक्सान ॥

भंवर से भी बाहर करूं लम्बी भुजा पसार
'भक्त' जो दुर्गा पाठ पढ़ करेगा प्रेम पुकार ॥

संसारी विपत्तियां देती हूं मैं टाल
जिसको दुर्गा पाठ का रहता सदा ख्याल ॥

मैं ही रिद्धि -सिद्धि हूं महाकाली विकराल
मैं ही भगवती चंडिका शक्ति शिवा विशाल ॥

भैरो हनुमत मुख्य गण हैं मेरे बलवान
दुर्गा पाठी पे सदा करते कृपा महान ॥

इतना कह कर देवी तो हो गई अंतरध्यान
सभी देवता प्रेम से करने लगे गुणगान ॥

पूजन करे भवानी का मुहं मांगा फल पाए
'भक्त' जो दुर्गा पाठ को नित श्रद्धा से गाए ॥

वरदाती का हर समय खुला रहे भंडार
इच्छित फल पाए 'भक्त' जो भी करे पुकार ॥

इक्कीस दिन इस पाठ को कर ले नियम बनाये
हो विश्वास अटल तो वाकया सिद्ध हो जाये ॥

पन्द्रह दिन इस पाठ में लग जाये जो ध्यान
आने वाली बात को आप ही जाए जान ॥

नौ दिन श्रद्धा से करे नव दुर्गा का पाठ
नवनिधि सुख सम्पति रहे वो शाही ठाठ ॥

सात दिनों के पाठ से बलबुद्धि बढ़ जाये
तीन दिनों का पाठ ही सारे पाप मिटाए ॥

मंगल के दिन माता के मन्दिर करे ध्यान
'भक्त' जैसी मन भावना वैसा हो कल्याण ॥

शुद्धि और सच्चाई हो मन में कपट ना आये
तज कर सभी अभिमान न किसी का मन कलपाये ॥

सब का कल्याण जो मांगेगा दिन रैन
काल कर्म को परख कर करे कष्ट को सहन ॥

रखे दर्शन के लिए निस दिन प्यासे नैन
भाग्यशाली इस पाठ से पाए सच्चा चैन ॥

द्वादश यह अध्याय है मुक्ति का दातार
'भक्त' जीव हो निडर उतरे भव से पार ॥

॥जय माँ जगदम्बे॥

दुर्गा सप्तशती : ग्यारहवां अध्याय


ऋषिराज कहने लगे सुनो ऐ पृथ्वी नरेश
महाअसुर संहार से मिट गए सभी कलेश

इन्द्र आदि सभी देवता टली मुसीबत जान
हाथ जोड़कर अम्बे का करने लगे गुणगान

तू रखवाली मां शरणागत की करे
तू भक्तों के संकट भवानी हरे

तू विशवेश्वरी बन के है पालती
शिवा बन के दुःख सिर से है टालती

तू काली बचाए महाकाल से
तू चंडी करे रक्षा जंजाल से

तू ब्रह्माणी बन रोग देवे मिटा
तू तेजोमयी तेज देती बढ़ा

तू मां बनके करती हमें प्यार है
तू जगदम्बे बन भरती भंडार है

कृपा से तेरी मिलते आराम हैं
हे माता तुम्हें लाखों प्रणाम हैं

तू त्रयनेत्र वाली तू नारायणी
तू अम्बे महाकाली जगतारिणी

गुने से है पूर्ण मिटाती है दुःख
तू दासों को अपने पहुंचाती है सुख

चढ़ी हंस वीणा बजाती है तू
तभी तो ब्रह्माणी कहलाती है तू

वाराही का रूप तुमने बनाया
बनी वैष्णवी और सुदर्शन चलाया

तू नरसिंह बन दैत्य संहारती
तू ही वेदवाणी तू ही स्मृति

कई रूप तेरे कई नाम हैं
हे माता तुम्हें लाखों प्रणाम हैं

तू ही लक्ष्मी श्रद्धा लज्जा कहावे
तू काली बनी रूप चंडी बनावे

तू मेघा सरस्वती तू शक्ति निद्रा
तू सर्वेश्वरी दुर्गा तू मात इन्द्रा

तू ही नैना देवी तू ही मात ज्वाला
तू ही चिंतपूर्णी तू ही देवी बाला

चमक दामिनी में है शक्ति तुम्हारी
तू ही पर्वतों वाली माता महतारी

तू ही अष्टभुजी माता दुर्गा भवानी
तेरी माया मैया किसी ने ना जानी

तेरे नाम नव दुर्गा सुखधाम हैं
हे माता तुम्हें लाखों प्रणाम हैं

तुम्हारा ही यश वेदों ने गाया है
तुझे भक्तों ने भक्ति से पाया है

तेरा नाम लेने से टलती बलाएं
तेरे नाम दासों के संकट मिटायें

तू महामाया है पापों को हरने वाली
तू उद्धार पतितों का है करने वाली

दोहा :-
स्तुति देवों की सुनी माता हुई कृपाल
हो प्रसन्न कहने लगी दाती दीन दयाल

सदा दासों का करती कल्याण हूं
मैं खुश हो के देती यह वरदान हूं

जभी पैदा होंगे असुर पृथ्वी पर
तभी उनको मारूंगी मैं आन कर

मैं दुष्टों के लहू का लगाऊंगी भोग
तभी रक्तदन्तिका कहेंगे यह लोग

बिना गर्भ अवतार धारुंगी मैं
तो शताक्षी बन निहारूंगी मैं

बिना वर्षा के अन्न उपजाउंगी
अपार अपनी शक्ति मैं दिखलाऊंगी

हिमालय गुफा में मेरा वास होगा
यह संसार सारा मेरा दास होगा

मैं कलयुग में लाखों फिरूं रूप धारी
मेरी योगिनियां बनेंगी बीमारी

जो दुष्टों के रक्त को पिया करेंगी
यह कर्मों का भुगतान किया करेंगी

दोहा :-
'भक्त' जो सच्चे प्रेम से शरण हमारी आये
उसके सारे कष्ट मैं दूंगी आप मिटाए

प्रेम से दुर्गा पाठ को करेगा जो प्राणी
उसकी रक्षा सदा ही करेगी महारानी

बढ़ेगा चौदह भवन में उस प्राणी का मान
'भक्त' जो दुर्गा पाठ की शक्ति जाये जान

एकादश अध्याय में स्तुति देवं कीन
अष्टभुजी माँ दुर्गा ने सब विपदा हर लीन

भाव सहित इसको पढ़ो जो चाहे कल्याण
मुह मांगा देती है दाती वरदान

बोलिए जय माता दी जी

दुर्गा सप्तशती : दसवां अध्याय


ऋषिराज कहने लगे मारा गया निशुम्भ
क्रोध भरा अभिमान से बोला भाई शुम्भ

अरी चतुर दुर्गा! तुझे लाज जरा ना आये
करती है अभिमान तू बल औरों का पाए

जगदाती बोली तभी दुष्ट तेरा अभिमान
मेरी शक्ति को भला सके कहां पहचान

मेरा ही त्रिलोक में है सारा विस्तार
मैंने ही उपजाया है यह सारा संसार

चंडी काली, ऐन्द्री, सब हैं मेरे रूप
एक हूं मैं अम्बिका मेरे सभी स्वरूप

मैं ही अपने रूपों में एक जान हूं
अकेली महा शक्ति बलवान हूं

चढ़ी सिंह पर दाती ललकारती
भयानक अति रूप थी धारती

बढ़ा शुम्भ आगे गरजता हुआ
गदा को घुमाता तरजता हुआ

तमाशा लगे देखने देवता
अकेला असुर राज था लड़ रहा

अकेली थी दुर्गा इधर लड़ रही
वह हर वर पर आगे थी बढ़ रही

असुर ने चलाये हजारों ही तीर
जरा भी हुई ना वह मैया अधीर

तभी शुम्भ ने हाथ मुगदर उठाया
असुर माया कर दुर्गा पर वह चलाया

तो चक्र से काटा भवानी ने वो
गिरा धरती पे हो के वह टुकड़े दो

उड़ा शुम्भ आकाश में आ गया
वह उपर से प्रहार करने लगा

तभी की भवानी ने उपर निगाह
तो मस्तक का नेत्र वही खुल गया

हुई ज्वाला उत्पन्न बनी चंडी वो
उड़ी वायु में देख पाखंडी को

फिर आकाश में युद्ध भयंकर हुआ
वहा चंडी से शुम्भ लड़ता रहा

दोहा :-
मारा रणचंडी ने तब थप्पड़ एक महान
हुआ मूर्छित धरती पे गिरा शुम्भ बलवान

जल्दी उठकर हो खड़ा किया घोर संग्राम
दैत्य के उस पराक्रम से कांपे देव तमाम

बढ़ा क्रोध में अपना मुहं खोल कर
गरज कर भयानक शब्द बोल कर

लगा कहने कच्चा चबा जाऊंगा
निशां आज तेरा मिटा जाऊंगा

क्या सन्मुख मेरे तेरी औकात है
तरस करता हूं नारी की जात है

मगर तूने सेना मिटाई मेरी
अग्न क्रोध तूने बढ़ाई मेरी

मेरे हाथों से बचने न पाओगी
मेरे पावों के नीचे पिस जाओगी

यह कहता हुआ दैत्य आगे बढ़ा
भवानी को यह देख गुस्सा चढ़ा

चलाया वो त्रिशूल ललकार कर
गिरा काट के सिर दिया का धरती पर

किया दुष्ट असुरों का मां ने संहार
सभी देवताओं ने किया जय-जयकार

ख़ुशी से वे गंधर्व गाने लगे
नृत्य करके मां को रिझाने लगे

'भक्त' चरणों में सिर झुकाते रहे
वे वरदान मैया से पाते रहे

यही पाठ है दसवें अध्याय का
जो प्रीति से पढ़ श्रद्धा से गाएगा

वह जगदम्बे की भक्ति पा जायेगा
शरण में जो मैया की आ जायेगा

दोहा:-
आध भवानी की कृपा, मनो कामना पाए
'भक्त' जो दुर्गा पाठ को पढ़े सुने और गाए

कालिकाल विकराल में जो चाहो कल्याण
श्री दुर्गा स्तुति का करो पाठ 'भक्त' दिन रैन
कृपा से आद भवानी की मिलेगा सच्चा चैन

बोलिए जय माता दी